इष्ट देव सांकृत्यायन
विदेशों से आई ज़हरीली वनस्पतियों के चलते नदियां और मैदानी ज़मीन तो पहले से ही दुष्प्रभावित होती रही है, अब ख़बर है कि पहाड़ भी इससे अछूते नहीं रहे. नवीनतम ख़बर के मुताबिक गिरिराज हिमालय एक घास की चपेट में आ रहे हैं. यह घास है गाजर घास. कल ही दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक उत्तराखंड की कुल ख़ाली ज़मीन के 90 फ़ीसदी हिस्से में यह ज़हरीली घास फैल चुकी है. यह घास भूमि को तो बंजर बनाती ही है, आसपास की वनस्पतियों और वातावरण को भी ज़हरीला बना देती है. सबसे त्रासद बात यह है कि इसके दुष्प्रभावों से सुपरिचित वैज्ञानिक इसे मिटाने के लिए दवा ईजाद होने के इंतज़ार में हैं. ग़नीमत है कि वे हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक हैं, जो कर्म पर कम और भाग्य पर ज़्यादा भरोसा करते हैं. इसीलिए इसे समूल मिटाने की हैसियत रखने वाली कोई दवा अभी तक ईजाद भी नहीं हो सकी है और वह तब तक ईजाद भी नहीं होगी जब तक किसी यूरोपीय देश या अमेरिका में इसका दुष्प्रभाव नहीं फैलता और वहां के लोग इस मामले में जागरूक नहीं होते. लेकिन यह सोचने की बात है कि अगर ऐसी कोई दवा ईजाद हो ही गई तो क्या उसका प्रयोग सुरक्षित होगा? उसके प्रयोग से गाजर घास भले नष्ट हो जाए, पर इस बात का क्या भरोसा कि उससे कुछ दूसरे नुकसान नहीं होंगे?
आइए नज़र डालते हैं इसके इतिहास-भूगोल पर. देहरादून से दिनेश कुकरेती की रिपोर्ट के मुताबिक यह घास मेक्सिको से भारत आई 70 के दशक में वहां से आयातित गेहूं के साथ. यही गाजर घास यानी पार्थेनियम अब उत्तराखंड के लिए काल बन गई है. 1962 में चीन से युद्ध के बाद भारत ने मेक्सिको से पीएल-57 गेहूं आयात किया और इसी के साथ गाजर घास देश में घुस आई. पंजाब से होते हुए यह ज़हरीली घास दो दशकों के भीतर लगभग पूरे देश में फैल गई, क्योंकि एक बार जड़ जमाने के बाद यह सुरसा के मुंह की तरह फैलती है, लाख जतन करने पर भी ख़त्म नहीं होती. उत्तराखंड में अपने शुरुआती दौर में इस घास ने समुद्रतल से आठ सौ फुट की ऊंचाई पर पैर पसारे और आज यह 4500 फुट की ऊंचाई पर भी जमीन की उर्वरता और वनस्पतियों को चाट रही है. हर वातावरण में ख़ुद को ढाल लेने की ख़ूबी के चलते अब यह हिमालय की ओर बढ़ रही है. समुद्रतल से 4500 फुट की ऊंचाई तक पहुंच चुकी यह घास राज्य की ज़मीन को बंजर करने के साथ ही वनस्पतियों व वातावरण को ज़हरीला बनाने में लगी है. इसके संपर्क में आने से इंसान, पशु-पक्षी और वनस्पतियों को तमाम बीमारियां लग रही हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि पार्थेनियम जहां भी पनपता है, वहां ज़मीन की नमी को पूरी तरह सोखकर उसे ऊसर बना देता है. इसके संपर्क में रहने से इंसान, पशु-पक्षी और वनस्पतियां सभी तमाम बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. इससे निकलने वाला विशेष प्रकार का केमिकल अन्य वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देता है. इसके प्रभाव में आने से चेहरे, गर्दन समेत शरीर के खुले हिस्सों में खुजली होने लगती है, जो धीरे-धीरे एग्जिमा में परिवर्तित हो जाती है. इसके संपर्क में आने से एलर्जी, अस्थमा अटैक, एयर बोर्न कांटेक्ट डिज़ीज़ भी हो सकती हैं.
इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि यह ख़ुद को हर तरह के माहौल के अनुरूप ढाल लेती है और इसके ही चलते इसका जीवनचक्र छह से बढ़कर अब साढ़े नौ तक महीने पहुंच चुका है. आज तक ऐसी कोई दवा ईजाद नहीं हुई है, जो इसे समूल मिटा दे. हालांकि 1985 में गाजर घास के उन्मूलन के लिए जाइगोग्रामा बाइक्लोरेटा नामक कीट को मेक्सिको से लाकर पार्थेनियम प्रभावित क्षेत्रों में छोड़ा गया, लेकिन यह कीट यहां के वातावरण के अनुकूल स्वयं को नहीं ढाल पा रहा है. फ़िलहाल इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट (पूसा इंस्टीट्यूट) भी इस मसले पर कार्य कर रहा है.
अब सवाल यह है कि क्या हम ऐसे ही बैठे-बैठे ताकते रहें? क्या देश सिर्फ़ नेताओं और अधिकारियों का है और हमारा इस पर कोई हक़ नहीं है? अगर हक़ है और किसी ने किसी रूप में हम उसका दावा करते हैं तो फिर फ़र्ज़ का क्या होगा? आख़िर हम हक़ की ही तरह फ़र्ज़ पर भी आगे बढ़ कर दावा क्यों नहीं ठोंकते? कब तक हम इंतज़ार करते रहेंगे किसी तीसरे के घर में भगत सिंह के पैदा होने अपने दरवाज़े पर कूड़ा हटाने के लिए किसी तीसरे के आने का? इसके ख़तरे को समझें और ठीक से समझें. अगर यह ख़तरा समझ में आ गया है तो फिर या तो उसे झेलने के लिए तैयार हो जाएं या फिर मिटाने के लिए.
मेरी मानें आलस्य में पड़े रह कर आगे बड़ा कष्ट झेलने से बेहतर है कि हम इसे मिटाने के लिए ही कमर कस लें और वह कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है. इसके उपाय का सर्वोत्तम उपाय है इस सन्दर्भ में जागरूकता और सामूहिकता की भावना. बजाय दवा और कीट के भरोसे बैठने के, बेहतर यह होगा कि लोग इसे ख़ुद ही उखाड़-उखाड़ कर जला दें. इस मामले में यह न सोचें कि घास मेरे घर के सामने उगी है या किसी और के! जहां कहीं भी देखें वहीं इसे उखाड़ें और जला दें. इस मामले में सच्ची समूह भावना का परिचय दें. इसके लिए सभी तरह की दुर्भावनाएं छोड़ कर जागना हमें ही पड़ेगा.
इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि यह ख़ुद को हर तरह के माहौल के अनुरूप ढाल लेती है और इसके ही चलते इसका जीवनचक्र छह से बढ़कर अब साढ़े नौ तक महीने पहुंच चुका है. आज तक ऐसी कोई दवा ईजाद नहीं हुई है, जो इसे समूल मिटा दे. हालांकि 1985 में गाजर घास के उन्मूलन के लिए जाइगोग्रामा बाइक्लोरेटा नामक कीट को मेक्सिको से लाकर पार्थेनियम प्रभावित क्षेत्रों में छोड़ा गया, लेकिन यह कीट यहां के वातावरण के अनुकूल स्वयं को नहीं ढाल पा रहा है. फ़िलहाल इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट (पूसा इंस्टीट्यूट) भी इस मसले पर कार्य कर रहा है.
अब सवाल यह है कि क्या हम ऐसे ही बैठे-बैठे ताकते रहें? क्या देश सिर्फ़ नेताओं और अधिकारियों का है और हमारा इस पर कोई हक़ नहीं है? अगर हक़ है और किसी ने किसी रूप में हम उसका दावा करते हैं तो फिर फ़र्ज़ का क्या होगा? आख़िर हम हक़ की ही तरह फ़र्ज़ पर भी आगे बढ़ कर दावा क्यों नहीं ठोंकते? कब तक हम इंतज़ार करते रहेंगे किसी तीसरे के घर में भगत सिंह के पैदा होने अपने दरवाज़े पर कूड़ा हटाने के लिए किसी तीसरे के आने का? इसके ख़तरे को समझें और ठीक से समझें. अगर यह ख़तरा समझ में आ गया है तो फिर या तो उसे झेलने के लिए तैयार हो जाएं या फिर मिटाने के लिए.
मेरी मानें आलस्य में पड़े रह कर आगे बड़ा कष्ट झेलने से बेहतर है कि हम इसे मिटाने के लिए ही कमर कस लें और वह कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है. इसके उपाय का सर्वोत्तम उपाय है इस सन्दर्भ में जागरूकता और सामूहिकता की भावना. बजाय दवा और कीट के भरोसे बैठने के, बेहतर यह होगा कि लोग इसे ख़ुद ही उखाड़-उखाड़ कर जला दें. इस मामले में यह न सोचें कि घास मेरे घर के सामने उगी है या किसी और के! जहां कहीं भी देखें वहीं इसे उखाड़ें और जला दें. इस मामले में सच्ची समूह भावना का परिचय दें. इसके लिए सभी तरह की दुर्भावनाएं छोड़ कर जागना हमें ही पड़ेगा.
सच तो यह है कि तरीक़ा यही सही होगा. क्योंकि इस बात का भी कोई भरोसा नहीं है कि अगर कोई दवा ईजाद हो जाए तो आगे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह साबित न हो. क्या पता दवा गाजर घास को तो मार दे, पर इसकी जगह कोई नई बीमारी दे जाए! जबकि उखाड़ कर जला देने का तरीक़ा थोड़ा समय ज़्यादा ज़रूर लेगा, लेकिन है सौ प्रतिशत सुरक्षित. इससे घास भी ख़त्म हो जाएगी और कोई नई बीमारी भी नहीं आएगी. एक बात और, यह बिलकुल न सोचें कि यह घास सिर्फ़ हिमालय में ही उग रही है. मैदानी इलाकों में भी यह घास बहुतायत से दिख रही है. बिलकुल गाजर के पौधे जैसे दिखने वाले इसके पौधे आपके घर के आसपास या खेत-खलिहान में भी हो सकते हैं. आपके पडोस में भी हो सकते हैं. जहां ख़ुद मिटा सकें वहां तो ख़ुद मिटा दें और जहां ख़ुद न मिटा सकें, वहां जिससे संभव हो उसे समझा कर इसे मिटाने का प्रयास करें. ध्यान रखें, इसे मिटाने पर ही आपके पर्यावरण की जीवंतता और आपका अन्न निर्भर है. लिहाजा इस मामले में सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका को दोषी ठहराने के तरीक़े न ढूंढें. इससे आपको कोई लाभ नहीं होगा. नुकसार आपको ज़रूर भुगतना पड़ेगा. लिहाजा इसमें देर न करें, अभी जुट जाएं.
Bahut Barhia... aapka swagat hai...
ReplyDeletethanx
http://mithilanews.com
please visit
http://hellomithilaa.blogspot.com
Mithilak Gap... Maithili Me
http://mastgaane.blogspot.com
Manpasand Gaane
http://muskuraahat.blogspot.com
Aapke Bheje Photo
धन्यवाद आपका!
ReplyDeleteदूसरे को दोषी ठहराकर अधिकतर लोग इस बात की तुष्टि कर लेते हैं कि उन्होंने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया .
ReplyDeleteअब तो समय है - 'हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा' जैसे सूत्र का अनुसरण करने का .
जिम्मेदारी अपने कन्धों पर है -
"भीषण पर्यावरण प्रदूषण, दीख रहा प्रत्यक्ष .
चेतें, जागें, लें संकल्प, घर-घर लगायें वृक्ष .."
[] राकेश 'सोहम'
इष्ट देव जी आपने झक्कास लिखा है, पढकर मजा आ गया।
ReplyDeleteसुनील पाण्डेय
9954090154
भाई मनोज जी!
ReplyDeleteवर्ड वेरीफ़िकेशन का लफ़ड़ा तो यहां पहले से ही नहीं है.
बहुत ज्ञानवर्धक आलेख । आभार
ReplyDeleteस्वागत है ।
गुलमोहर का फूल
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete---- चुटकी-----
ReplyDeleteकौन ! महात्मा गाँधी
हम नहीं जानते हैं,
हम तो राहुल गाँधी को
अपना आदर्श मानते हैं,
एक यही गाँधी हमें
सत्ता का स्वाद चखाएगा,
महात्मा तो बुत है,
तस्वीर है,विचार है,
यूँ ही
पड़ा,खड़ा सड़ जाएगा।
हम तो साल भर यह घास उखाड़
ReplyDeleteने का काम करते ही रहते है । बिना किसी झिझक के ।
ReplyDeleteबिलकुल, समय रहते इलाज जरूरी होता है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
तो सत्संगत का असर हो ही गया ,आपको भी खर-पतवारों से प्रेम हो गया ,
ReplyDeleteगाज़र घास के उन्मूलन के लिए बहुत ग्रामीणों ने मुझसे पूछा ,मैंने जो तरीका बताया उसे कोई कर नहीं पाया ,ये काहिलों का देश है ,अपने सर पे भी गाज़र घास उग जायेगी तो उम्मीद करेंगे कि खुद न हाथ हिलाना पड़े ,कोई दूसरा उखाड़ दे ,
तरीका ये था कि इनकी जड़ में १०० ग्राम गो-मूत्र डाल दीजिये ,ये स्वतः मर जायेंगी ,न विश्वास हो तो आजमा कर देखिये
Jai Ho....
ReplyDeleteदीवाली हर रोज हो तभी मनेगी मौज
पर कैसे हर रोज हो इसका उद्गम खोज
आज का प्रश्न यही है
बही कह रही सही है
पर इस सबके बावजूद
थोड़े दीये और मिठाई सबकी हो
चाहे थोड़े मिलें पटाखे सबके हों
गलबहियों के साथ मिलें दिल भी प्यारे
अपने-अपने खील-बताशे सबके हों
---------शुभकामनाऒं सहित
---------मौदगिल परिवार
पुरानी पोस्ट है पर काफी ज्ञानवर्द्धक .. अबतक कहीं से लिंक भी नहीं मिला था इसका .. किसी भी बात के लिए सरकार से उम्मीद लगाना व्यर्थ है .. उनके पास अधिकारों को सुरक्षित रहने दिया जाए .. और हम कर्तब्यों का पालन करते रहें .. हमारी लापरवाही से ही समस्याएं इतनी बढ जाती हैं .. समय पर इसे उखाडकर जला दिया जाता .. तो इतनी समस्या तो न बढती .. अलका जी के सुझाव पर भी ध्यान दिया जा सकता है !!
ReplyDeleteबहुत उम्दा. सराहनीय.
ReplyDeleteसचमुच इस खर पतवार घास ने मुश्किलें खडी कर दी हैं !
ReplyDelete