आक्रामक पन्नियाँ




हर दूसरे दिन
घर के
किसी कोने में
इकट्ठी हो जातीं हैं
दर्ज़नों पॉलीथीन

ये पन्नियाँ
हमारी मानसिकता को
सूंघ लेतीं हैं
और आ जातीं हैं
हमारे पीछे पीछे ...

सब्जियों के साथ
किराने के साथ
कपड़ों के साथ
उपहार में
या फिर
मंदिर के प्रसाद में !

ये कभी
नष्ट नहीं होतीं
और
बना देती हैं
हमारी मानसिक
उर्वरा शक्ति को
क्षीण ! अति क्षीण !!

हाँ, तभी तो
उसमें उपजती नहीं
संकल्प-शक्ति,
पनपता नहीं -
दृढ विश्वाश
मधुर संबंधों के लिये ?
अब
आक्रामक हो गयीं हैं
पन्नियाँ !!!

[] राकेश 'सोहम'
{पत्र-पत्रिका में प्रकाशन पर अंक की एक प्रति एल - १६, देवयानी काम्प्लेक्स, जय नगर, गढ़ा रोड जबलपुर - 482002 पर प्रेषित करें }

Comments

  1. सच है ये अनुत्पादक चीज़ें न सिर्फ़ हमारी उर्वरा शक्ति को क्षीण करती हैं बल्कि हमारे पर्यावरण को ही नष्ट किए दे रही हैं। इनसे जितना बचा जाए उतना अच्छा है।

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  2. पन्नियों ने पर्यावरण पर आक्रामण कर दिया है।

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  3. बहुत बहुत बुरी हैं यह पन्निया ! आपने लेखन के लिए एक नया विषय दिया है, आभार

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  4. गहन बात कही है पन्नियों के माध्यम से ... अच्छी और सारगर्भित रचना

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  5. ये कभी
    नष्ट नहीं होतीं
    और
    बना देती हैं
    हमारी मानसिक
    उर्वरा शक्ति को
    क्षीण ! अति क्षीण !!

    बहुत सुन्दर..पन्नियाँ हमारे पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुकी हैं..गहन चिंतन से परिपूर्ण सार्थक प्रस्तुति..

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  6. एक समाज को प्रयावरण के प्रति सचेत करती ..पोलिथन णा इस्तेमाल का सार्थक सन्देश देती आपकी पोस्ट अच्छी लगी.. सादर

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  7. बहुत सार्थक सन्देश...कुछ राज्यों ने हालाँकि बैन कर रखा है इसे परन्तु अभी भी ये सर्वत्र उपलब्ध है और सुरसा की तरह आपना मुंह फाड़े निगलने को सदैव आतुर दिखती है ....

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