आइए, हम सब जुड़ें प्रकृति के लिए

हमारे पास जो कुछ भी है, वह सब प्रकृति की ही देन है. यहां तक कि ख़ुद हम भी. इसके बावजूद हम सबसे ज़्यादा दुश्मनी जिससे निभा रहे हैं, वह भी प्रकृति ही है. आज का मनुष्य जिसे सभ्यता कहता है, अगर उसके विकास के इतिहास पर नज़र डालें तो वह कुल मिलाकर प्रकृति के सत्यानाश का इतिहास दिखता है. कभी संसाधनों के दोहन के रूप में तो कभी उस पर अपनी ओर से चीज़ें थोपने के रूप में. प्रकृति पर हम तरह-तरह से अत्याचार करते आ रहे हैं और प्रकृति है कि वह हर हाल में हमें सहती आ रही है. वह हमसे जब बेतरह तंग आ जाती है, तब सिर्फ़ कराहती भर है. ये अलग बात है कि उसका कराहना ही हमारे लिए बहुत होता है. हमारी जान पर बन आती है. एक ही बार में लाखों लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं. कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कहीं तूफ़ान और कहीं ......... क्या-क्या कहें.
यह हम सब बार-बार देख रहे हैं. इसकी वजहों को समझ रहे हैं और ढंग से महसूस कर रहे हैं. अगर सिर्फ़ मंचों पर बोलने या लिखने-पढ़ने तक की बात हो तो उसमें भी हम सब बहुत आगे हैं. यह जानते हुए भी कि ऐसा करके भी हम प्रकृति और पर्यावरण का सत्यानाश ही कर रहे हैं, हम यह भी करने से बाज नहीं आ रहे हैं. सच पूछें तो आज सबसे ज़्यादा प्रदूषण वही फैला रहे हैं जो पर्यावरण के संरक्षण के नाम पर खा रहे हैं. गोष्ठियां करके वे ध्वनि प्रदूषण ही नहीं फैलाते, वहां औपचारिक चाय-नाश्ते के लिए प्लास्टिक के जो कप-प्लेट इस्तेमाल किए जाते हैं, वे कचरा बनकर क्या करते हैं यह हम सब जानते हैं. पर्यावरण विषयक कई संगोष्ठियों में मैं शिरकत कर चुका हूं. कभी ऐसा देखा नहीं कि वहां मिट्टी के कुल्हड़ों और पत्तलों का इस्तेमाल होता हो. गोरखपुर से लेकर जालन्धर और अब दिल्ली तक, कहीं भी मैंने यह नहीं देखा कि अगर गर्मी में आयोजन हो रहा हो तो उसमें कूलर का इस्तेमाल न हो रहा हो.
यहां तक कि जब ओज़ोन परत के क्षरण और उसमें क्लोरोफ्लोरो कॉर्बन की भूमिका तथा उसके स्रोत कूलर-फ्रिज की बात हो रही होती है, तो भी यह सारी बात एसी या कूलर की हवा में ही हो रही होती है. ज़ाहिर है, पर्यावरण के नाम पर काम कर रहे देश भर के ग़ैर सरकारी संगठनों में शायद ही दो-चार ऐसे संगठन हों जो सचमुच पर्यावरण के प्रति गंभीर हों. वरना ज़्यादातर संगठनों की गंभीरता केवल विभिन्न जगहों से मिलने वाली ग्रांट तक ही सीमित है. यहां तक कि ख़ुद सरकार के लिए भी पर्यावरण कोई चिंता का विषय नहीं है. यह उसके लिए भी सिर्फ़ आमदनी का एक ज़रिया भर है. कुछ मामलों में टैक्स के रूप में तो कुछ मामलों में भ्रष्टाचार की जो पुण्यसलिला गंगा बह रही है, उस रूप में.
पेड़ों को वे काट कर तस्करों-चोरों के हाथ बेच रहे हैं जिन्हें पेड़ों की रखवाली के लिए ही वेतन मिलता है. यह सब उस देश में हो रहा है जहां प्रकृति से कभी न तो लड़ने का भाव रहा है और न होड़ लेने का ही. प्रकृति हमेशा से हमारी आराध्या रही है और हममें प्रकृति के प्रति हमेशा कृतज्ञता और मित्रता का भाव ही रहा है. आज भी चाहे रूढ़ियों के रूप में सही, हम जाने कितने पेड़ों, नदियों, पहाड़ों... यहां तक कि घास को भी पूजते हैं. यह वही देश है, जहां शमी जैसे कांटेदार पौधे को बचाने के लिए 18वीं शताब्दी में ही बिश्नोई समुदाय के लोग जान देने पर तुल गए थे. बाद में उसकी ही तर्ज पर उत्तराखंड में भी चिपको आन्दोलन चला. क्या यह सब आपको कष्ट नहीं देता?
अगर हां, तो आज ही संकल्प करें, कम से कम ख़ुद अय्याशी के लिए ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे प्रकृति को नुकसान पहुंचे. फ़ालतू पानी बहाना, मामूली दूरी के लिए मोटर वाहनों का उपयोग, प्लास्टिक की थैलियों या प्रकृति को क्षति पहुंचाने वाले अन्य कार्य.... इन पर हमें ख़ुद रोक लगाना होगा. इस मामले में सरकारों से क़ानून बनाने और उस क़ानून पर अमल का इंतज़ार न करें. क्योंकि यहां क़ानून हाथी के दिखाने वाले दांतों जैसी चीज़ है. ऐसे किसी भी देश में जहां सरकार चलाने वालों में देश के संसाधनों और जनता के हितों के संरक्षण तथा जवाबदेही की भावना नहीं होती, वहां क़ानून की हैसियत जर्जर मकान जैसी ही होती है. रहे तो कोई फ़ायदा नहीं और ढहे तो नीचे रहने वालों की ही जान पर बन आए. यह उम्मीद यहां करना ही बेकार है कि सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है. अब जो होगा, वह ख़ुद हमारे-आपके करने से ही होगा. किसी और की उम्मीद न करें. पहले तो ख़ुद जगें और फिर अपने निकट के हर शख़्स को जगाएं. उठें और जुट जाएं. याद रखें, काली या सफ़ेद, सारी कमाई सिर्फ़ तभी तक है, जब तक प्रकृति है. क्योंकि हमारा-आपका होना कोई निरपेक्ष क्रिया नहीं है. यह भी निर्भर है प्रकृति के होने पर. जब यह नष्ट होगी तो सबको नष्ट करेगी. उसे भी जिसने प्रकृति के नाम पर हमारी-आपकी गाढ़ी कमाई का पैसा दूहा है और उसे भी जिसे बेवजह दूहा गया है. लिहाजा प्रकृति को बचाने के लिए आपकी अपनी संवेदनशीलता और सक्रियता अनिवार्य है. इसी संवेदनशीलता और सक्रियता के लिए लोकार्पित है यह चिट्ठा. आएं, यहां अपने सुझाव, योजनाएं, लेख, कविताएं, कहानियां, प्रयास......... वह सब जो प्रकृति को समर्पित हो, चाहे वह किसी भी विधा में हो, दर्ज करें. आपका स्वागत है.

Comments

  1. बहुत ही सुन्दर आलेख. हमारी एक सलाह है. हम भी एक ग्रुप बना कर महीने में एक दो बार आस पड़ोस के पिकनिक स्पोट्स पर जाएँ और वहां फैलाये गए कचरे को इकठ्ठा करें यह लोगों को बताते हुए कि पर्यावरण को दूषित न करें. वैसे हम इस काम को किये जा रहे हैं और अब लगने लगा है कि उन जगहों पर जाने वाले लोग सोचने लगे हैं कि "वो बुड्ढे लोग आयेंगे, कचरा उठाने". परन्तु हम भी डटे हैं यह कहते हुए "उठाये जा उनके सितम"

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  2. सच पूछें तो आज सबसे ज़्यादा प्रदूषण वही फैला रहे हैं जो पर्यावरण के संरक्षण के नाम पर खा रहे हैं.
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    यह तो निर्विवाद है। और यह भी निर्विवाद है कि इस (पर्यावरण के विषय) पर हिन्दी में पर्याप्त अलख जगाने की जरूरत है। अपने आस पास के दिनो दिन डीग्रेड होते देखने पर आंतरिक कष्ट होता है।
    हम जब बात करेंगे, लिखेंगे और सोचेंगे तो उत्तरोत्तर जिम्मेदार बनेंगे पर्यावरण के प्रति।

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  3. आदरणीय पाण्डेय जी और सुब्रमण्यम जी!
    सुझावों के लिए धन्यवाद!
    हम कोशिश करेंगे कि इन सुझावों पर अमल कर सकें.

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  4. सही कहा आपने । आभार ।

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  5. सही कहा आपने ! आपके विचारों से १००% सहमत |

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  6. हाँ पर्यावरणीय मुद्दों को सशक्त स्वर देना ही होगा -आपने एक परिसंवाद शुरू ही कर दिया है -बधाई !

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  7. भाई साहब, आपने बहुत शानदार पहल की है। हम सब सामूहिक प्रयास से अपने पर्यावरण के प्रति चिन्तन मनन करेंगे तो अच्छे परिणाम जरूर आएंगे। अब कमर कसनी होगी। हार्दिक शुभकामनाएं।

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  8. मैने लिया तो सिर्फ़ ज़हर
    मैने दिया तो सिर्फ़ अमृत
    मैने खोया तो अपना अंग
    मैने पाया तो सिर्फ़ पत्थर
    मैं कटा पर झुका नहीं
    सहता रहा पर बढ़ता रहा
    देखा ना गया जब यह भी आदम से
    रास्ते में है कह के पेड़ काट दिया
    मैं जो हरा भरा था
    जिसपे कुछ पक्षियों का घोंसला था
    लकड़ी लकड़ी हो के रह गया
    अब लोग खुश हैं, नयी कुर्सी बनेगी
    merikavita.info

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