गुबरैले


Dung Beetle हमारे पैर गंगा की रेती में अचानक रुक गये। सामने दो गुबरैले जो एक ढेले को खींचते धकेलते जा रहे थे; हमारे पैरों की धमक से अचानक सुकुत्त हो गये थे। मेरी पत्नीजी ने मुझे आगाह किया था, अन्यथा उनपर पैर पड़ जाता। उन्हें हमारी उपस्थिति का आभास था। अत: वे चुपचाप पड़े थे। हम लोग धीरे से एक कदम पीछे हट गये। लगभग आधे मिनट बाद वे पुन: ढेला धकेलने लगे।

मुझे मालुम है कि यह बहुत बड़ा ईवेण्ट नहीं है। पर आदमी की पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ के बावजूद अभी गुबरैले हैं। प्रकृति के कर्मठ सफाई कर्मी। और वे न मेहनताना मांगते हैं, न ड्यूटी से नगरपालिका के कामचोर कर्मचारियों की तरह गायब रहते हैं।

गुबरैलों के बारे में श्री पंकज अवधिया की बहुत बढ़िया अतिथि पोस्ट है मानसिक हलचल पर: गुबरैला एक समर्पित सफाई कर्मी है। आप उसे देखने की कृपा करें। यह है उस पोस्ट का अंश:

ये प्रकृति के सफाई कर्मचारी हैं। इनके बारे मे कहा जाता है कि यदि ये न होते तो अफ्रीका के जंगल अब तक जानवरों मे मल की कई परतों मे दब चुके होते। हमने अपने शहर से इन सफाई कर्मचारियों को भगा दिया है। हम इन्हे देखते ही चप्पल उठा लेते हैं और मारने मे देर नही करते हैं। ये गुबरैले ( डंग बीटल ) मल को गेंद की शक्ल देकर लुढ़काते हुये ले जाते हैं और अपनी प्रेमिका को दिखाते हैं। बडी गेंद लाने वाले प्रेमी को पसन्द किया जाता है। मादायें गेंद रुपी उपहार लेकर मिट्टी में दबा देती हैं, फिर उसी मे अंडे देती हैं ताकि बच्चो के बाहर निकलने पर भोजन की कमी न रहे। विश्व के बहुत से देशों मे मानव की गन्दगी से निपटने अब इन मुफ्त के सफाई कर्मचारियो को वापस बुलाया जा रहा है। भारत में भी इनकी जरुरत है।

गंगा के कछार में गायें-भैसें करती हैं गोबर। उसमें अनेक प्रकार के कीड़े दीखते हैं जो उसको डी-कम्पोज करते हैं। ये गुबरैले भी उस शॄंखला में हैं और मुस्तैद हैं। यह अनुभव कर अच्छा लगा।

गंगा मानव के हिंसक अनाचार को सह कर भी जियें और हमारी जीवनदयिनी बनी रहें – यह  सदैव मन में आता रहता है। गुबरैले को देख कर वह विचार कुछ बल पाया।

क्या आप मुंह बिचका रहे हैं गुबरैले पर पोस्ट देख कर?! अब आप अपने समय बरबादी के रिस्क पर ही तो पढ़ते हैं पर्यावरण विषय पर!

यह वीडियो है उन्ही गुबरैलों का:


Comments

  1. अंतिम पंक्ति ने गहरी चोट की - पर सच भी तो यही है ।

    पंकज जी की पोस्ट पढ़ी नहीं थी आपके ब्लॉग पर - जा रहा हूँ वहीं ।

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  2. काहे मूँह बिचकायेंगे...दूसरके कहें तो सुनने की आदत है न..खुद से तो कौनो बात जाने नहीं पाते..का करें..मजबूर हैं और इसी चक्कर में जरुरी बात छोड़ ९९% के साथ खड़े नजर आते हैं...आभार आपका!!

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  3. संवेदनशील पोस्ट और ऐसी ही पाठकों से उम्मीद भी..एक सरोकार भरे जागरूक लेखक की भांति..

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  4. बहुत सार्गर्भित पोस्ट है शुभकामनायें

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  5. सचमुच मनुष्य ने बड़ी बेवकूफियां की हैं विकास और सभ्यता के नाम पर. गुबरैलों और केंचुओं का सफ़ाया उन्हीं बेवकूफियों में से एक है.

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  6. यह संचय की प्रवृत्ति अर्थात बड़ा ढेला बनाना मनुष्य ने कहीं गुबरैलों से तो नही सीखा ?

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  7. प्रकृति ने स्वयं की रक्षा में गुब्रैल जैसे कीटों को लगा रखा है. धन्य है प्रभु ! उनको ज्ञान नहीं है मानवों के जैसे.

    ज्ञान जी, बड़ी ही सहजता से ज्ञान बांटते हैं . आपकी कलम को सलाम .
    [] राकेश 'सोहम'

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